कांच के टुकड़ों पे जो पाँव फिसला,दलदल के गहरे पानी मे भी संभल नहीं पाया---आंसुओ का सैलाब जो
बहा,इतना बहा कि समंदर भी इस को पचा ना सका----इज़्ज़त के नाम पे,मेरे वज़ूद की धज़्ज़िया उड़ाने
वाले...बेबसी मेरी पे इतना हॅसे कि लौट के जहाँ मे फिर सर उठा ना सके---घुंघरू की जगह जब बेड़ियों
ने ली,तो रास्ते खुलने तो क्या..बंद नज़र आने लगे----धीमे धीमे ज़ख़्म नासूर बने,और यह ज़ख़्म ताउम्र
भर ही नहीं पाया------
बहा,इतना बहा कि समंदर भी इस को पचा ना सका----इज़्ज़त के नाम पे,मेरे वज़ूद की धज़्ज़िया उड़ाने
वाले...बेबसी मेरी पे इतना हॅसे कि लौट के जहाँ मे फिर सर उठा ना सके---घुंघरू की जगह जब बेड़ियों
ने ली,तो रास्ते खुलने तो क्या..बंद नज़र आने लगे----धीमे धीमे ज़ख़्म नासूर बने,और यह ज़ख़्म ताउम्र
भर ही नहीं पाया------