Wednesday 27 December 2017

कुछ बिखर गए .... कुछ सिमट गए .... कुछ बेखौफ तेरी बातो मे उलझ गए-----तेरे मेरे दरमियान

गुफ़तगू का वो सिलसिला ......कभी हसी तो कभी नाराज़गी का वो उलाहना -----राज़ तो आज भी

खोल देती है झुकी पलकों की गुस्ताखियाँ -----पाँव के अंगूठे से वो ज़मी को कुरेदना..... फिर कभी

तिलमिला कर हमी पे बरसना----याद तो आज भी करते है तेरी नरम  कलाइयों की वो अठखेलिया

जवाब देने के लिए,जवाब पाने के लिए....लफ्ज़...जो कुछ बिखर गए तो कुछ सिमट गए----

दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का.... .....

 दे कर रंग इन लबो को तेरे प्यार का,हम ने अपने लबो को सिल लिया...कुछ कहते नहीं अब इस ज़माने  से कि इन से कहने को अब बाकी रह क्या गया...नज़रे चु...