कुछ बिखर गए .... कुछ सिमट गए .... कुछ बेखौफ तेरी बातो मे उलझ गए-----तेरे मेरे दरमियान
गुफ़तगू का वो सिलसिला ......कभी हसी तो कभी नाराज़गी का वो उलाहना -----राज़ तो आज भी
खोल देती है झुकी पलकों की गुस्ताखियाँ -----पाँव के अंगूठे से वो ज़मी को कुरेदना..... फिर कभी
तिलमिला कर हमी पे बरसना----याद तो आज भी करते है तेरी नरम कलाइयों की वो अठखेलिया
जवाब देने के लिए,जवाब पाने के लिए....लफ्ज़...जो कुछ बिखर गए तो कुछ सिमट गए----
गुफ़तगू का वो सिलसिला ......कभी हसी तो कभी नाराज़गी का वो उलाहना -----राज़ तो आज भी
खोल देती है झुकी पलकों की गुस्ताखियाँ -----पाँव के अंगूठे से वो ज़मी को कुरेदना..... फिर कभी
तिलमिला कर हमी पे बरसना----याद तो आज भी करते है तेरी नरम कलाइयों की वो अठखेलिया
जवाब देने के लिए,जवाब पाने के लिए....लफ्ज़...जो कुछ बिखर गए तो कुछ सिमट गए----