मुुहबबत नाम नही ऐययाशी का..मुहबबत तो किताब है..इबादत केेे पननो का...जिसम
का मिलन गर पयार होता तो ना तेरा वजूद होता..ना मेरा वजूद होता.....पूजा के धागो
मे सिमटता..रूह की ताकत मे बदलता बस खुदा का बेपनाह इकरार होता..जिसम तो
जिसम है..मिट ही जातेे है....रूह को जो जीते..बस वही पयार होता..वही पयार होता....
का मिलन गर पयार होता तो ना तेरा वजूद होता..ना मेरा वजूद होता.....पूजा के धागो
मे सिमटता..रूह की ताकत मे बदलता बस खुदा का बेपनाह इकरार होता..जिसम तो
जिसम है..मिट ही जातेे है....रूह को जो जीते..बस वही पयार होता..वही पयार होता....