टूटते तारो से कया माॅगे गे कभी-हसरतो का तो कोई अनत ही नही----जिनदगी तो हर
रोज इक नई खवाहिश ले कर आती है-और जनून बन कर खुद पे ही छा जाती है--पल मे
तोला-पल मे माशा बन जाती है---वकती तौर पे खुद से गिला करती है--तारो से अब
कया कहना है-जब हसरतो को अलविदा कहनी ही नही-------
रोज इक नई खवाहिश ले कर आती है-और जनून बन कर खुद पे ही छा जाती है--पल मे
तोला-पल मे माशा बन जाती है---वकती तौर पे खुद से गिला करती है--तारो से अब
कया कहना है-जब हसरतो को अलविदा कहनी ही नही-------